Monday 12 December 2011

dheeroja meri dhay maa

धीरोजा एक मेहतरानी थी, पर वो मुझे अपनी धाय माँ के रूप में याद आती है, उस स्नेह को आज के मतलबी युग में कोई नही महसूस कर सकता की , कोई किसी को अपने बच्चे जैसा चाह सकता है. वो बेहद खुशमिजाज थी, और मुझे ढेर सारे फल खिलाती थी.उस वक़्त जब अस्पर्श्यता चरम पे थी , मई अपनी २ बरस की आयु में धिरोजा के बगीचे के फल कहती थी. मुझे इससे कोई मतलब कन्हा,  जब थोड़ी बड़ी हुई तो , धिरोजा की अंगुली पकड़ कर बाजार खेल, तमाशे, रामलीला ये सब दिखाना , धिरोजा के जिम्मे था.
वाकई वो दिन शानदार थे, वंहा कोई डराने वाला नही था, सब चाहते थे, विधवा बुआ के घर आंगन में मेरे खेल ही तो रवानगी लेट थे. धिरोजा रोज ४-५ बजे आकर मुझे भुत की कहानी सुनती थी, मई उससे पूछती फिर क्या हुआ ,धिरोजा बाई. वो मुझे कहती आप बाई मत कहो, मै कहती आप हमे आप नही तुम कहो, यह आप तुम की तकरार हमारे बीच रोज होती,वो कहती की मै उसे तू कहु, मै कहती आप बड़ी हो, हम तुम ही कहेंगे.बाजी हमारे इस तकरार को चुपचाप सुनती रहती. मै लंग्द्ध्प  खेलती तो भी धिरोजा मना करती की ,मै गिर जाउंगी, इसपर मै नाराज होती की कोई खेलने से कंही गिरता है. तो वो कहती हंसी की ख़ुशी हो जाएगी, मै इसपर पूछती, ये हंसी की ख़ुशी क्या होती है.
बद में अपने ११वे बरस में वंहा से मुझे लौटना पड़ा, तो धिरोजा मुझे याद कर कंही भी रोती थी. वो बाद में मुझसे  मिलने मीलों पैदल चल कर आती थी, मुझे देख जैसे उसकी आंखे जुडा जाती था. ई वो सारी स्नेहमयी  बुआ नही है, किन्तु उन्सबको  यादकर आजभी मेरी ऑंखें नम हो जाती है, क़ि जीवन में एसा भी एक दौर था.